अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल /ग़ज़लें व कविता Akbar Allahabadi Ghazal,Poem,Poetry
मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार
हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है
हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल
टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर
शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है
नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज
कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही
हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं
दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया
स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें
क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा
क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया
भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई
पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार
हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है
हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल
टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर
शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है
नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज
कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही
हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं
दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया
स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें
क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा
क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया
भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई
पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी
फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी
दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी
जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी
है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी
हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी
कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी
कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है ।
इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।
ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है ।
जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर,
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।
हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया,
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।
किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा
अव्वल[1] बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा[2] की सूरत में आके मारा
आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा
ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
सोसन[3] की तरह 'अकबर', ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा
शब्दार्थ
1पहले
2 मौत
3 एक कश्मीरी पौधा
कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की
ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार[1] की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की
ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन[2] को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की
बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों[3] ने गली में यार की
लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की
थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की
हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की
शब्दार्थ
1 ग़ैर
2 तसल्ली
3 दोस्तों
शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा
आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा
तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा
ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा
क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा
हास्य-रस -एक / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
दिल लिया है हमसे जिसने दिल्लगी के वास्ते
क्या तआज्जुब है जो तफ़रीहन हमारी जान ले
शेख़ जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया
आप बी०ए० पास हैं तो बन्दा बीवी पास है
तमाशा देखिये बिजली का मग़रिब और मशरिक़ में
कलों में है वहाँ दाख़िल, यहाँ मज़हब पे गिरती है.
तिफ़्ल में बू आए क्या माँ -बाप के अतवार की
दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की
कर दिया कर्ज़न ने ज़न मर्दों की सूरत देखिये
आबरू चेहरों की सब, फ़ैशन बना कर पोंछ ली
मग़रबी ज़ौक़ है और वज़ह की पाबन्दी भी
ऊँट पे चढ़ के थियेटर को चले हैं हज़रत
जो जिसको मुनासिब था गर्दूं ने किया पैदा
यारों के लिए ओहदे, चिड़ियों के लिए फन्दे
हास्य-रस -दो / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
*
बोला चपरासी जो मैं पहुँचा ब-उम्मीदे-सलाम-
"फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये"
*
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
*
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
*
तंग इस दुनिया से दिल दौरे-फ़लक़ में आ गया
जिस जगह मैंने बनाया घर, सड़क में आ गया
हास्य-रस -तीन / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता
दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए
मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"
नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है
बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.
हास्य-रस -चार / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
तालीम लड़कियों की ज़रूरी तो है मगर
ख़ातूने-ख़ाना हों, वे सभा की परी न हों
जो इल्मों-मुत्तकी हों, जो हों उनके मुन्तज़िम
उस्ताद अच्छे हों, मगर ‘उस्ताद जी’ न हों
तालीमे-दुख़तराँ से ये उम्मीद है ज़रूर
नाचे दुल्हन ख़ुशी से ख़ुद अपनी बारात में
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बच्चे बापको ख़ब्ती समझते हैं
क़द्रदानों की तबीयत का अजब रंग है आज
बुलबुलों को ये हसरत, कि वो उल्लू न हुए.
हास्य-रस -पाँच / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
फ़िरगी से कहा, पेंशन भी ले कर बस यहाँ रहिये
कहा-जीने को आए हैं,यहाँ मरने नहीं आये
बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है, और नूर चला जाता है
काँउंसिल में सवाल होने लगे
क़ौमी ताक़त ने जब जवाब दिता
हरमसरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक ?
ख़ुदा के फ़ज़्ल से बीवी-मियाँ दोनों मुहज़्ज़ब हैं
हिजाब उनको नहीं आता इन्हें ग़ुसा नहीं आता
माल गाड़ी पे भरोशा है जिन्हें ऐ अकबर
उनको क्या ग़म है गुनाहों की गिराँबारी का?
ख़ुदा की राह में बेशर्त करते थे सफ़र पहले
मगर अब पूछते हैं रेलवे इसमें कहाँ तक है?
हास्य-रस -छ: / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
मय भी होटल में पियो,चन्दा भी दो मस्जिद में
शेख़ भी ख़ुश रहे, शैतान भी बेज़ार न हो
ऐश का भी ज़ौक़ दींदारी की शुहरत का भी शौक़
आप म्यूज़िक हाल में क़ुरआन गाया कीजिये
गुले तस्वीर किस ख़ूबी से गुलशन में लगाया है
मेरे सैयाद ने बुलबुल को भी उल्लू बनाया है
मछली ने ढील पाई है लुक़में पे शाद है
सैयद मुतमइन है कि काँटा निगल गई
ज़वाले क़ौम की इन्तिदा वही थी कि जब
तिजारत आपने की तर्क नौकरी कर ली
हास्य-रस -सात / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
क्योंकर ख़ुदा के अर्श के क़ायल हों ये अज़ीज़
जुगराफ़िये में अर्श का नक़्शा नहीं मिला
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ
तालीम का शोर ऐसा, तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती नीयत की ख़राबी है
तुम बीवियों को मेम बनाते हो आजकल
क्या ग़म जो हम ने मेम को बीवी बना लिया?
नौकरों पर जो गुज़रती है, मुझे मालूम है
बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिये
ख़ुदा के बाब में / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं
मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ायम न रक्खूँगा
मचेगा गुल, ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं
मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे!
बन जावो हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे!
हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!
मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे!
बन जावो हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे!
हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!
गाँधी तो हमारा भोला है / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
गाँधी तो हमारा भोला है, और शेख़ ने बदला चोला है
देखो तो ख़ुदा क्या करता है, साहब ने भी दफ़्तर खोला है
आनर की पहेली बूझी है, हर इक को तअल्ली सूझी है
जो चोकर था वह सूजी है, जो माशा था वह तोला है
यारों में रक़म अब कटती है, इस वक़्त हुकूमत बटती है
कम्पू से तो ज़ुल्मत हटती है, बे-नूर मोहल्ला-टोला है
हाले दिल सुना नहीं सकता / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
हाले दिल सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता
इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता
पोंछ सकता है हमनशीं आँसू
दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता
मुझको हैरत है इस कदर उस पर
इल्म उसका घटा नहीं सकता
मौत आई इश्क़ में / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया
बाज़ारे-मग़रिबी की हवा से ख़ुदा बचाए
मैं क्या, महाजनों का दिवाला निकल गया
मुँह देखते हैं हज़रत / अकबर इलाहाबादी शायरी
मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं
मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम
हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं?
अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो
वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं
ग़म क्या / अकबर इलाहाबादी शायरी Akbar Allahabadi
ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ
मग़रिब ने खुर्दबीं से कमर उनकी देख ली
मशरिक की शायरी का मज़ा किरकिरा हुआ
ख़ैर उनको कुछ न आए / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा
थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा
वो हवा न रही वो चमन न रहा / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे
वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही
वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे
न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोह्द की जंग रही
सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दैर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे
न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे
वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे
हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या
ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा कि लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे
तेरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मेरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला
ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे
ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब
कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे
जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर
सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे
वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर
मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे
ग़म ओ रंज में ‘अकबर’ अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना
किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़्यादा मलूल ओ हज़ीं न रहे
जहाँ में हाल मेरा / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ
ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ
वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ
उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ
निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ
ग़म्ज़ा नहीं होता के / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
ग़म्ज़ा नहीं होता के इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
जलवा न हो मानी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को
सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता
तश्बीह तेरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
मैं नज़ा में हूँ आएँ तो एहसान है उन का
लेकिन ये समझ लें के तमाशा नहीं होता
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बद-नाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़सोस अब वो जी ही नहीं
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं
इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं
आप क्या जानें क़द्र-ए-'या-अल्लाह'
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं
शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं
पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए / अकबर इलाहाबादी Akbar Allahabadi
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए
क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात
होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए
दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को
क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए
ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब
बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए
साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए
जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा
याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए
दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद
जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए
मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शेख़ जी को फ़रबही
मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए
अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए
सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन
जोश-ए-दिल काफ़ी है अकबर तान उड़ाने के लिए
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