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Raidas Ke Pad/Dohe/Bhajan/ संत रविदास/रैदास के दोहे/भजन/पद अर्थ/पदावली

Raidas Ke Dohe/Bhajan/Pad/padawali


रैदास के दोहे

raidas dohe meaning/arth/raidas dohe in hindi

1.

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,

पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण

[ किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए नहीं पूजना चाहिए क्योंकि वह किसी ऊंचे कुल में जन्मा है. यदि उस व्यक्ति में योग्य गुण नहीं हैं तो उसे नहीं पूजना चाहिए, उसकी जगह अगर कोई व्यक्ति गुणवान है तो उसका सम्मान करना चाहिए, भले ही वह कथित नीची जाति से हो. ]

2.

कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै

तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै

[ ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है. यदि आदमी में थोड़ा सा भी अभिमान नहीं है तो उसका जीवन सफल होना निश्चित है. ठीक वैसे ही जैसे एक विशाल शरीर वाला हाथी शक्कर के दानों को नहीं बीन सकता, लेकिन एक तुच्छ सी दिखने वाली चींटी शक्कर के दानों को आसानी से बीन सकती है. ]

3.

जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड में बास

प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रैदास

[ जिस रविदास को देखने से लोगों को घृणा आती थी, जिनके रहने का स्थान नर्क-कुंड के समान था, ऐसे रविदास का ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना, ऐसा ही है जैसे मनुष्य के रूप में दोबारा से उत्पत्ति हुई हो. ]

4.

मन चंगा तो कठौती में गंगा

[ जिस व्यक्ति का मन पवित्र होता है, उसके बुलाने पर मां गंगा भी एक कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरे पात्र) में भी आ जाती हैं. ]

5.

करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस

कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास

[ आदमी को हमेशा कर्म करते रहना चाहिए, कभी भी कर्म के बदले मिलने वाले फल की आशा नही छोड़नी चाहिए, क्‍योंकि कर्म करना मनुष्य का धर्म है तो फल पाना हमारा सौभाग्य. ]

6.

मन ही पूजा मन ही धूप,

मन ही सेऊं सहज स्वरूप

[ निर्मल मन में ही ईश्वर वास करते हैं, यदि उस मन में किसी के प्रति बैर भाव नहीं है, कोई लालच या द्वेष नहीं है तो ऐसा मन ही भगवान का मंदिर है, दीपक है और धूप है. ऐसे मन में ही ईश्वर निवास करते हैं. ]

7.

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा

[ राम, कृष्ण, हरि, ईश्वर, करीम, राघव सब एक ही परमेश्वर के अलग-अलग नाम हैं. वेद, कुरान, पुराण आदि सभी ग्रंथों में एक ही ईश्वर की बात करते हैं, और सभी ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार का पाठ पढ़ाते हैं. ]

8.

हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास

[ हीरे से बहुमूल्य हैं हरि. यानी जो लोग ईश्वर को छोड़कर अन्य चीजों की आशा करते हैं उन्हें नर्क जाना ही पड़ता है. ]

9.

रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच

नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच

[ कोई भी व्यक्ति किसी जाति में जन्म के कारण नीचा या छोटा नहीं होता है, आदमी अपने कर्मों के कारण नीचा होता है. ]

10.

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात,

रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात

[ जिस प्रकार केले के तने को छीला तो पत्ते के नीचे पत्ता, फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में कुछ नही निकलता, लेकिन पूरा पेड़ खत्म हो जाता है. ठीक उसी तरह इंसानों को भी जातियों में बांट दिया गया है, जातियों के विभाजन से इंसान तो अलग-अलग बंट ही जाते हैं, अंत में इंसान खत्म भी हो जाते हैं, लेकिन यह जाति खत्म नही होती. ]

रैदास के पद अर्थ सहित 

अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा॥

रैदास के पद भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रैदास जी ने अपने भक्ति भाव का वर्णन किया है। उनके अनुसार, जिस तरह प्रकृति में बहुत सारी चीजें एक-दूसरे से जुड़ी रहती हैं, ठीक उसी तरह, भक्त एवं भगवान भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उन्होंने प्रथम पंक्ति में ही राम नाम का गुणगान किया है। रैदास के पद की इन पंक्तियों में वे बोल रहे हैं कि अगर एक बार राम नाम रटने की लत लग जाए, तो फिर वह कभी छूट नहीं सकती। उनके अनुसार, भक्त एवं भगवान चन्दन की लकड़ी एवं पानी की तरह होते हैं।

जब चन्दन की लकड़ी को पानी में डालकर छोड़ दिया जाता है, तो उसकी सुगंध पानी में फ़ैल जाती है। ठीक उसी प्रकार भगवान भी अपनी सुगंध भक्त के मन में छोड़ जाते हैं। जिसे सूंघकर भक्त सदा प्रभु-भक्ति में लीन रहता है।

आगे वह कहते हैं कि जब वर्षा होने वाली होती है और चारों तरफ़ आकाश में बादल घिर जाते हैं, तो जंगल में उपस्थित मोर अपने पंख फैलाकर नाचे बिना नहीं रह सकता। ठीक उसी प्रकार, एक भक्त राम नाम लिये बिना नहीं रह सकता। रैदास जी आगे कहते हैं, जैसे दीपक में बाती जलती रहती है, वैसे ही, एक भक्त भी प्रभु की भक्ति में जलकर सदा प्रज्वलित होता रहता है।

कवि के अनुसार अगर ईश्वर मोती हैं, तो भक्त एक धागे के सामान है, जिसमें मोतियों को पिरोया जाता है अर्थात दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं और इसीलिए कवि ने एक भक्त से भगवान के मिलन को सोने पे सुहागा कहा है। रैदास के पद की इन पंक्तियों में अपनी भक्ति का वर्णन करते हुए ,रैदास जी स्वयं को एक दास और प्रभु को स्वामी कहते हैं।

ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥

रैदास के पद भावार्थ :  रैदास के पद की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रभु की कृपा एवं महिमा का वर्णन किया है। उनके अनुसार इस संपूर्ण जगत में प्रभु से बड़ा कृपालु और कोई नहीं। वे गरीब एवं दिन- दुखियों को समान भाव से देखने वाले हैं। वे छूत-अछूत में विश्वास नहीं करते हैं और मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेदभाव नहीं करते। इसी कारणवश कवि को यह लग रहा है कि अछूत होने के बाद भी उन पर प्रभु ने असीम कृपा की है। प्रभु की इस कृपा की वजह से कवि को अपने माथे पर राजाओं जैसा छत्र महसूस हो रहा है।

रैदास के पद की इन पंक्तियों से पता चल रहा है कि कवि खुद को नीच एवं अभागा मानते थे। उसके बाद भी प्रभु ने उनके ऊपर जो कृपा दिखाई है, कवि उससे फूले नहीं समा रहे हैं। प्रभु अपने भक्तों में भेदभाव नहीं करते हैं, वे सदैव अपने भक्तों को समान दृष्टि से देखते हैं। वे किसी से नहीं डरते एवं अपने सभी भक्तों पर एक समान कृपा करते हैं। प्रभु के इसी गुण की वजह से नामदेव, कबीर जैसे जुलाहे, सधना जैसे कसाई, सैन जैसे नाइ एवं त्रिलोचन जैसे सामान्य व्यक्तियों को इतनी ख्याति प्राप्त हुई। प्रभु की कृपा से उन्होंने इस संसार-रूपी सागर को पार कर लिया। रैदास के पद की अंतिम पंक्तियों में कवि संतों से कहते हैं कि हरि यानि प्रभु की महिमा अपरम्पार है, वो कुछ भी कर सकते हैं।

अब मैं हार्यौ रे भाई / रैदास पद 

अब मैं हार्यौ रे भाई।

थकित भयौ सब हाल चाल थैं, लोग न बेद बड़ाई।। टेक।।

थकित भयौ गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा।

काम क्रोध थैं देह थकित भई, कहूँ कहाँ लूँ दूजा।।१।।

रांम जन होउ न भगत कहाँऊँ, चरन पखालूँ न देवा।

जोई-जोई करौ उलटि मोहि बाधै, ताथैं निकटि न भेवा।।२।।

पहली ग्यांन का कीया चांदिणां, पीछैं दीया बुझाई।

सुनि सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई।।३।।

दूरि बसै षट क्रम सकल अरु, दूरिब कीन्हे सेऊ।

ग्यान ध्यानं दोऊ दूरि कीन्हे, दूरिब छाड़े तेऊ।।४।।

पंचू थकित भये जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ थिति पाई।

जा करनि मैं दौर्यौ फिरतौ, सो अब घट मैं पाई।।५।।

पंचू मेरी सखी सहेली, तिनि निधि दई दिखाई।

अब मन फूलि भयौ जग महियां, उलटि आप मैं समाई।।६।।

चलत चलत मेरौ निज मन थाक्यौ, अब मोपैं चल्यौ न जाई।

सांई सहजि मिल्यौ सोई सनमुख, कहै रैदास बताई।।७।।

गाइ गाइ अब का कहि गाऊँ / रैदास पद 

गाइ गाइ अब का कहि गाऊँ।

गांवणहारा कौ निकटि बतांऊँ।। टेक।।

जब लग है या तन की आसा, तब लग करै पुकारा।

जब मन मिट्यौ आसा नहीं की, तब को गाँवणहारा।।१।।

जब लग नदी न संमदि समावै, तब लग बढ़ै अहंकारा।

जब मन मिल्यौ रांम सागर सूँ, तब यहु मिटी पुकारा।।२।।

जब लग भगति मुकति की आसा, परम तत सुणि गावै।

जहाँ जहाँ आस धरत है यहु मन, तहाँ तहाँ कछू न पावै।।३।।

छाड़ै आस निरास परंमपद, तब सुख सति करि होई।

कहै रैदास जासूँ और कहत हैं, परम तत अब सोई।।४।। ।। राग रामकली।।


राम जन हूँ उंन भगत कहाऊँ / रैदास पद 

राम जन हूँ उंन भगत कहाऊँ, सेवा करौं न दासा।

गुनी जोग जग्य कछू न जांनूं, ताथैं रहूँ उदासा।। टेक।।

भगत हूँ वाँ तौ चढ़ै बड़ाई। जोग करौं जग मांनैं।

गुणी हूँ वांथैं गुणीं जन कहैं, गुणी आप कूँ जांनैं।।१।।

ना मैं ममिता मोह न महियाँ, ए सब जांहि बिलाई।

दोजग भिस्त दोऊ समि करि जांनूँ, दहु वां थैं तरक है भाई।।२।।

मै तैं ममिता देखि सकल जग, मैं तैं मूल गँवाई।

जब मन ममिता एक एक मन, तब हीं एक है भाई।।३।।

कृश्न करीम रांम हरि राधौ, जब लग एक एक नहीं पेख्या।

बेद कतेब कुरांन पुरांननि, सहजि एक नहीं देख्या।।४।।

जोई जोई करि पूजिये, सोई सोई काची, सहजि भाव सति होई।

कहै रैदास मैं ताही कूँ पूजौं, जाकै गाँव न ठाँव न नांम नहीं कोई।।५।।

।। राग रामकली।।


अब मोरी बूड़ी रे भाई / रैदास पद 

अब मोरी बूड़ी रे भाई।

ता थैं चढ़ी लोग बड़ाई।। टेक।।

अति अहंकार ऊर मां, सत रज तामैं रह्यौ उरझाई।

करम बलि बसि पर्यौ कछू न सूझै, स्वांमी नांऊं भुलाई।।१।।

हम मांनूं गुनी जोग सुनि जुगता, हम महा पुरिष रे भाई।

हम मांनूं सूर सकल बिधि त्यागी, ममिता नहीं मिटाई।।२।।

मांनूं अखिल सुनि मन सोध्यौ, सब चेतनि सुधि पाई।

ग्यांन ध्यांन सब हीं हंम जांन्यूं, बूझै कौंन सूं जाई।।३।।

हम मांनूं प्रेम प्रेम रस जांन्यूं, नौ बिधि भगति कराई।

स्वांग देखि सब ही जग लटक्यौ, फिरि आपन पौर बधाई।।४।।

स्वांग पहरि हम साच न जांन्यूं, लोकनि इहै भरमाई।

स्यंघ रूप देखी पहराई, बोली तब सुधि पाई।।५।।

ऐसी भगति हमारी संतौ, प्रभुता इहै बड़ाई।

आपन अनिन और नहीं मांनत, ताथैं मूल गँवाई।।६।।

भणैं रैदास उदास ताही थैं, इब कछू मोपैं करी न जाई।

आपौ खोयां भगति होत है, तब रहै अंतरि उरझाई।।७।।

।। राग रामकली।।


तेरा जन काहे कौं बोलै / रैदास पद 

तेरा जन काहे कौं बोलै।

बोलि बोलि अपनीं भगति क्यों खोलै।। टेक।।

बोल बोलतां बढ़ै बियाधि, बोल अबोलैं जाई।

बोलै बोल अबोल कौं पकरैं, बोल बोलै कूँ खाई।।१।।

बोलै बोल मांनि परि बोलैं, बोलै बेद बड़ाई।

उर में धरि धरि जब ही बोलै, तब हीं मूल गँवाई।।२।।

बोलि बोलि औरहि समझावै, तब लग समझि नहीं रे भाई।

बोलि बोलि समझि जब बूझी, तब काल सहित सब खाई।।३।।

बोलै गुर अरु बोलै चेला, बोल्या बोल की परमिति जाई।

कहै रैदास थकित भयौ जब, तब हीं परंमनिधि पाई।।४।।


भाई रे भ्रम भगति सुजांनि / रैदास पद 

भाई रे भ्रम भगति सुजांनि।

जौ लूँ नहीं साच सूँ पहिचानि।। टेक।।

भ्रम नाचण भ्रम गाइण, भ्रम जप तप दांन।

भ्रम सेवा भ्रम पूजा, भ्रम सूँ पहिचांनि।।१।।

भ्रम षट क्रम सकल सहिता, भ्रम गृह बन जांनि।

भ्रम करि करम कीये, भरम की यहु बांनि।।२।।

भ्रम इंद्री निग्रह कीयां, भ्रंम गुफा में बास।

भ्रम तौ लौं जांणियै, सुनि की करै आस।।३।।

भ्रम सुध सरीर जौ लौं, भ्रम नांउ बिनांउं।

भ्रम भणि रैदास तौ लौं, जो लौं चाहे ठांउं।।४।।

।। राग रामकली।।


त्यूँ तुम्ह कारनि केसवे / रैदास पद 

त्यूँ तुम्ह कारनि केसवे, अंतरि ल्यौ लागी।

एक अनूपम अनभई, किम होइ बिभागी।। टेक।।

इक अभिमानी चातृगा, विचरत जग मांहीं।

जदपि जल पूरण मही, कहूं वाँ रुचि नांहीं।।१।।

जैसे कांमीं देखे कांमिनीं, हिरदै सूल उपाई।

कोटि बैद बिधि उचरैं, वाकी बिथा न जाई।।२।।

जो जिहि चाहे सो मिलै, आरत्य गत होई।

कहै रैदास यहु गोपि नहीं, जानैं सब कोई।।३।।

।। राग रामकली।।


आयौ हो आयौ देव तुम्ह सरनां / रैदास पद 

आयौ हो आयौ देव तुम्ह सरनां।

जांनि क्रिया कीजै अपनों जनां।। टेक।।

त्रिबिधि जोनी बास, जम की अगम त्रास, तुम्हारे भजन बिन, भ्रमत फिर्यौ।

ममिता अहं विषै मदि मातौ, इहि सुखि कबहूँ न दूभर तिर्यौं।।१।।

तुम्हारे नांइ बेसास, छाड़ी है आंन की आस, संसारी धरम मेरौ मन न धीजै।

रैदास दास की सेवा मांनि हो देवाधिदेवा, पतितपांवन, नांउ प्रकट कीजै।।२।।

।। राग रामकली।।


भाई रे रांम कहाँ हैं मोहि बतावो / रैदास पद 

भाई रे रांम कहाँ हैं मोहि बतावो।

सति रांम ताकै निकटि न आवो।। टेक।।

राम कहत जगत भुलाना, सो यहु रांम न होई।

करंम अकरंम करुणांमै केसौ, करता नांउं सु कोई।।१।।

जा रामहि सब जग जानैं, भ्रमि भूले रे भाई।

आप आप थैं कोई न जांणै, कहै कौंन सू जाई।।२।।

सति तन लोभ परसि जीय तन मन, गुण परस नहीं जाई।

अखिल नांउं जाकौ ठौर न कतहूँ, क्यूं न कहै समझाई।।३।।

भयौ रैदास उदास ताही थैं, करता को है भाई।

केवल करता एक सही करि, सति रांम तिहि ठांई।।४।।

।। राग रामकली।।


ऐसौ कछु अनभै कहत न आवै / रैदास पद 

ऐसौ कछु अनभै कहत न आवै।

साहिब मेरौ मिलै तौ को बिगरावै।। टेक।।

सब मैं हरि हैं हरि मैं सब हैं, हरि आपनपौ जिनि जांनां।

अपनी आप साखि नहीं दूसर, जांननहार समांनां।।१।।

बाजीगर सूँ रहनि रही जै, बाजी का भरम इब जांनं।

बाजी झूठ साच बाजीगर, जानां मन पतियानां।।२।।

मन थिर होइ तौ कांइ न सूझै, जांनैं जांनन हारा।

कहै रैदास बिमल बसेक सुख, सहज सरूप संभारा।।३।।

।। राग रामकली।।


अखि लखि लै नहीं / रैदास पद 

अखि लखि लै नहीं का कहि पंडित, कोई न कहै समझाई।
अबरन बरन रूप नहीं जाके, सु कहाँ ल्यौ लाइ समाई।। टेक।।
चंद सूर नहीं राति दिवस नहीं, धरनि अकास न भाई।
करम अकरम नहीं सुभ असुभ नहीं, का कहि देहु बड़ाई।।१।।
सीत बाइ उश्न नहीं सरवत, कांम कुटिल नहीं होई।
जोग न भोग रोग नहीं जाकै, कहौ नांव सति सोई।।२।।
निरंजन निराकार निरलेपहि, निरबिकार निरासी।
काम कुटिल ताही कहि गावत, हर हर आवै हासी।।३।।
गगन धूर धूसर नहीं जाकै, पवन पूर नहीं पांनी।
गुन बिगुन कहियत नहीं जाकै, कहौ तुम्ह बात सयांनीं।।४।।
याही सूँ तुम्ह जोग कहते हौ, जब लग आस की पासी।
छूटै तब हीं जब मिलै एक ही, भणै रैदास उदासी।।५।।


नरहरि चंचल मति मोरी / रैदास पद 

नरहरि चंचल मति मोरी।
कैसैं भगति करौ रांम तोरी।। टेक।।
तू कोहि देखै हूँ तोहि देखैं, प्रीती परस्पर होई।
तू मोहि देखै हौं तोहि न देखौं, इहि मति सब बुधि खोई।।१।।
सब घट अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत ही नहीं जांनां।
गुन सब तोर मोर सब औगुन, क्रित उपगार न मांनां।।२।।
मैं तैं तोरि मोरी असमझ सों, कैसे करि निसतारा।
कहै रैदास कृश्न करुणांमैं, जै जै जगत अधारा।।३।।

राम बिन संसै गाँठि न छूटै / रैदास पद 

राम बिन संसै गाँठि न छूटै।
कांम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।। टेक।।
हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित, हम जोगी संन्यासी।
ग्यांनी गुनीं सूर हम दाता, यहु मति कदे न नासी।।१।।
पढ़ें गुनें कछू संमझि न परई, जौ लौ अनभै भाव न दरसै।
लोहा हरन होइ धँू कैसें, जो पारस नहीं परसै।।२।।
कहै रैदास और असमझसि, भूलि परै भ्रम भोरे।
एक अधार नांम नरहरि कौ, जीवनि प्रांन धन मोरै।।३।।



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