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ग़ज़लें गुलज़ार /गुलज़ार कविता /नज्में गुलज़ार

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है गुलज़ार Gulzar  अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है अभी न पर्दा गिराओ,...

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लोकप्रिय नज़्म नज्में - Nazm- Nazmein / Popular Hindi and Urdu Nazm In Hindi-2

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नज़्म Nazm

 आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था

आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है

तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेहताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है

तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे

जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मंडराते हुए आते हैं

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है

आँख वा थी / ख़ालिद कर्रार नज़्म Nazm

 आँख वा थी
होंट चुप थे
एक रिदा-ए-यख़ हवा ने ओढ़ ली थी
जबीं ख़ामोश
सज्दे बे-ज़बाँ थे
आगे इक काला समंदर
पीछे सुब्ह-ए-आतिशीं थी
और जब लम्हें रवाँ थे
हम कहाँ थे

आँखें दो जुडवाँ बहनें / सारा शगुफ़्ता नज़्म Nazm

 जब हमारे गुनाहों पे वक़्त उतरेगा
बंदे खरे हो जाएँगे
फिर हम तौबा के टाँकों से
ख़ुदा का लिबास सिएँगे
तुम ने समुंदर रहन रख छोड़ा
और घोंसलों से चुराया हुआ सोना
बच्चे के पहले दिन पे मल दिया गया

तुम दुख को पैवन्द करना
मेरे पास उधार ज़ियादा है और दुकान कम
आँखें दो जुड़वाँ बहनें
एक मेरे घर बियाही गई दूसरी तेरे घर
हाथ दौ सौतले भाई
जिन्हों ने आग में पड़ाव डाल रक्खा है

आँखों में दफ़्न हैं / हरकीरत हकीर नज़्म Nazm

 इन आँखों में
दफ़्न हैं....
हजारों रंग मुहब्बत के

कभी फ़ुर्सत मिले
तो पढना इन्हें
फ़ासले कम हो जाएंगे....

आँगन में एक शाम / मज़हर इमाम नज़्म Nazm

 शाम की
लम्हा लम्हा
धुँद में
सर झुकाए हुए घर के
ख़ामोष आँगन में बैठे हुए
मेरी वामाँदा आँखों की जलती हुई रेत से
इक बिफरते समुंदर की आवारा लहरें अचानक उलझने लगीं
शाम की
रस्ता रस्ता
उतरती हुई धुँद में
इस बिफरते समुंदर की आवारा लहरों को
चोरी छुपे
दफ़्न करना पड़ा
उस खंडर में
जहाँ मुर्दा सदियों के भटके हुए राह-रौ
चीख़ते फिरते हैं
अपनी ही खोज में
ख़ौफ़ का साँप
रग रग में ख़ूँ की तरह सरसराता रहा
रात के चंद बे-कार लम्हात की राज़-दाँ
देख पाए न बिफरे समुंदर की आवारा लहरों का चेहरा कहीं
और पूछे मोहब्बत से इसरार से
ये बैठे-बिठाए तुम्हें क्या हुआ
कुछ मुझे भी कहो

आंसुओं में रुल गई बाबुल / हरकीरत हकीर नज़्म Nazm

 आंसुओं में रुल गई बाबुल
तेरे प्यार की कविता …

है राहों में उदासी
ज़िन्दगी में सूनापन
हार कर थम गए कदम
मन रह गया रीता
आंसुओं में रुल गई बाबुल
तेरे प्यार की कविता …

फूलों की ये शाख कैसे
पैरों में रुल गई
ज़ख्मों के साथ कैसे
पत्ती - पत्ती छिज गई
आ देख जा एक बार बाबुल
दिल टुकड़े- टुकड़े हुआ जाता
आंसुओं में रुल गई बाबुल
तेरे प्यार की कविता …

मौत को उडीकती हूँ
मौत भी आई न
रोती तेरी बेटी किसी ने
सीने से लगाई न
आ सीने से लगा ले बाबुल
गम पीया नहीं जाता
आंसुओं में रुल गई बाबुल
तेरे प्यार की कविता … !!

आइये इक पहर यहीं बैठें / अमित नज़्म Nazm

 आइये इक पहर यहीं बैठें
साथ सूरज के ढलें सुरमई अंधेरों में
सुने बेचैन परिन्दों की चहक
लौट कर आते हुये फिर उन्ही बसेरों में

आशियाँ सबको हसीं लगता है अपना, लेकिन
बस मुकद्‌दर में सभी के मकाँ नहीं होता
और हैरत है कि मस्रूफ़ियाते-दीगर में
इस कमी का मुझे कोई गुमाँ नहीं होता

उम्र कटती ही चली जाती है
इन दरख़्तों के तले, बेंच पे, फुटपाथों पर
कितने ही पेट टिके हैं देखें
दौड़ती पैर की जोड़ी पे और हाथों पर

रोज़ सूरज को जगाता हूँ सवेरे उठकर
रात तारों के दिये ढूँढ कर जलाता हूँ
वक़्ते-रुख़्सत की वो आँखें उभर सी आती हैं
जाने कितने ही ख़यालों में डूब जाता हूँ

ज़िन्दगी छोटी है, तवील भी है
मस‍अला भी है, इक दलील भी है
छोड़िये ये फ़िज़ूल की बहसें
आइये इक पहर यहीं बैठें

शब्दार्थ: 
मसरूफ़ियाते-दीगर = अन्य व्यस्तताओं में
वक़्ते-रुख़्सत = विदा के समय
तवील = लम्बी
मस‍अला = समस्या
दलील = युक्ति

आईने के सामने / ज़िया फतेहाबादी नज़्म Nazm

 तुम्हारे रुखसार रंग ओ नूर ए शबाब से जगमगा रहे हैं
तुम्हारे रंगीन होंठ साज़ ए बहार में मुस्करा रहे हैं
तुम्हारे शब्गूँ सियाह गेसू , हवास ए आलम उड़ा रहे हैं
तुम्हारी आँखों में मस्तियाँ हैं
कि मस्तियों की ये बस्तियाँ हैं
यहाँ फ़क़त मै परस्तियाँ हैं
तुम्हारी रोशन जबीं में तारे निशात के झिलमिला रहे हैं
तुम आईने में सँवर रही हो

कहीं-कहीं बादलों के टुकड़े बिसात ए गर्दूं पे जलवागर हैं
ये आलम-ए जज़्ब ओ बेख़ुदी है कि फ़र्ज़ से अपने बेख़बर हैं
ये जाते ख़ुरशीद की शआएँ निढाल हो कर भी शोखतर हैं
तुम्हें दरीचे से झाँकती हैं
तजल्लियाँ नज़र कर रही हैं
तुम्हीं पे गोया मिटी हुई हैं
सरूर ए नज़्ज़ारा ए जमाल ओ निशात ए रंगीन से कैफ़ पर हैं !
तुम आईने में सँवर रही हो

मेरे दिल ए पुरउम्मीद में आरजूएं करवट बदल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे सीने से आह बन कर निकल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे होंठों पे खेलने को मचल रही हैं
बना हुआ हूँ नज़र सरापा !
है ख़ुश्क अब आँसुओं का दरिया
तुम्हारा चेहरा है कितना प्यारा
बार आएंगी अब वो सब उम्मीदें जो दिल में बरसों से पल रही हैं
तुम आईने में सँवर चुकी हो

आओ वापिस चलें / तलअत इरफ़ानी नज़्म Nazm

 आओ वापिस चलें
तुम वही लोग हो,
मुझ को मालूम है उम वही लोग हो,
जिन के अजदाद की शाहरगों का लहू
मुद्दतों इस गुलिस्तान को सींचा किया,
मुद्दतों की गुलामी की जंजीरों को
जिन के अजदाद ने तोड़ कर रख दिया ।

तुम वही हो जिन के दिल में कभी
इत्तहाद ओ अख्वत के जज़्बात थे
हर कड़ी वक्त पर जो वतन की खुदी के मुहाफिज़ रहे
जिन की पेशानियों का पसीना सदा
खिदमते कौम में सर्फ़ होता रहा।
जिनकी जिंदा दिली
जिन की सादा दिली,
हर तरहां की सियासत से बाला रही।
तुम वही हो कि जिनकी लुग़त में कभी
बरबरीयत कोई लफ्ज़ था ही नही।

मुझ को मालूम है, 
ये जो सड़कों पर बिखरा हुआ लहू
यह जो माहौल दहशत ज़दा है यहाँ 
यह जो गलियों में है सोग छाया हुआ, 
यह जो आकाश को छू रहा है धुंआ 
उठ रही हैं जो लपटें वहां आग की
यह सभी कुछ तुम्हारे किए से नही
इस के पीछे किसी और का हाथ है।

लेकिन ऐ दोस्तों 
तुम ने सोचा भी है?, तुम ने जाना भी है?
इन सब एमाल से, ऐसे किरदार से
अपनी मंजिल की जानिब रवां कौम को
तुम ने लाकर कहाँ से कहाँ रख दिया ?

यह थकन, यह उदासी, यह पज़्मुर्दगी, 
गर्द आलूद चेहरों की धुंधली ज़या, 
कौम के ताज़ा दम होने के वक्त पर
तुम ने यह क्या किया?
हाय ! यह क्या किया??
यह कोई वक्त था? आपसी बैर का?

खैर अब तक तो जो सो हुआ,
याद रखने की अब से बस इक बात है।
कोई भी वक्त हो कोई भी दौर हो,
मुल्क हर फिरका ओ फर्द से है बड़ा!
और इसके आलावा भे ऐ दोस्तों
आदमी तो फरिश्तों की औलाद है
उसका शैतान बनना मुनासिब नही।

चौक, बाज़ार, गलियां, दुकानें
सभी शाह राहें दफातर मिलें,
ज़ंग खाती हुयी रेलों की पटरियां, 
कारखानों की दम तोड़ती चिमनियाँ,
आलमें यास में सर गरां खैतियाँ 
आदमी और धरती के पाकीजा रिश्ते की कसमें 
सरों पर उठाये हुए, हर कदम पर सदा दे रही हैं तुम्हें!
आओ वापिस चले, आओ वापिस चले।

आख़िरी ख़त / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नज़्म Nazm

 वह वक्त मेरी जान बहुत दूर नहीं है
जब दर्द से रुक जायेंगी सब ज़ीसत की राहें
और हद से गुज़र जायेगा अन्दोह-ए-नेहानी
थक जायेंगी तरसी हुयी नाकाम निगाहें
छिन जायेंगे मुझसे मिरे आंसू, मिरी आहें
छिन जायेगी मुझसे मिरी बेकार जवानी

शायद मिरी उल्फ़त को बहुत याद करोगी
अपने दिल-ए-मासूम को नाशाद करोगी
आओगी मिरी गोर पे तुम अश्क बहाने
नौख़ेज़ बहारों के हसीं फूल चढ़ाने

शायद मिरी तुरबत को भी ठुकराके चलोगी
शायद मिरी बे-सूद वफ़ायों पे हंसोगी
इस वज़ए-करम का भी तुमहें पास न होगा
लेकिन दिल-ए-नाकाम का एहसास न होगा

अलकिस्सा मआल-ए-ग़म-ए-उल्फ़त पे हंसो तुम
या अश्क बहाती रहो फ़रियाद करो तुम
माज़ी पे नदामत हो तुम्हें या कि मसर्रत
ख़ामोश पड़ा सोयेगा वामांदा-ए-उल्फ़त

आख़िरी तमाशाई / शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी नज़्म Nazm

 उठो कि वक़्त ख़त्म हो गया
तमाश-बीनों में तुम आख़िरी ही रह गए हो

अब चलो
यहाँ से आसमान तक तमाम शहर चादरें लपेट ली गईं

ज़मीन संग-रेज़ा सख़्त
दाँत सी सफ़ेद मल्गजी दिखाई दे रही है हर तरफ़

तुम्हें जहाँ गुमान-ए-सब्ज़ा था
वो झलक रही है कोहना काग़ज़ों की बर्फ़

वो जो चले गए उन्हें तो इख़्तितामिए के सब सियाह मंज़रों का इल्म था
वो पहले आए थे इसी लिए वो अक़्लमंद थे तुम्हें

तो सुब्ह का पता न शाम की ख़बर तुम्हें तो
इतना भी पता नहीं कि खेल ख़त्म हो तो उस को शाम

कहते हैं ऐ नन्हे शाइक़ान-ए-रक़्स
अब घरों को जाओ

आख़िरी दलील / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद नज़्म Nazm

 तुम्हारी मोहब्बत
अब पहले से ज़्यादा इंसाफ़ चाहती है
सुब्ह बारिश हो रही थी 
जो तुम्हें उदास कर देती 
इस मंज़र को ला-ज़वाल बन ने का हक़ था 

इस खिड़की को सब्ज़े की तरफ़ खोलते हुए 
तुम्हें एक मुहासरे में आए दिल की याद नहीं आई

एक गुम-नाम पुल पर 
तुम ने अपने आप से मज़बूत लहजे में कहा 
मुझ अकेले रहना है 

मोहब्बत को तुम ने 
हैरत-ज़दा कर देने वाली ख़ुश क़िस्मती नहीं समझा 

मेरी क़िस्मत जहाज़-रानी के कारख़ाने में नहीं बनी 
फिर भी मैं ने समंदर के फ़ासले तय किए 
पुर-असरार तौर पर ख़ुद को ज़िंदा रक्खा 
और बे-रहमी से शाएरी की 

मेरे पास एक मोहब्बत करने वाले की 
तमाम ख़ामियाँ
और आख़िरी दलील है

आख़िरी नज़्म / राशिद जमाल नज़्म Nazm

 ज़मीं
जिस से मुझ को शिकायत रही है 
कि वो सब के हिस्से में है कुछ न कुछ 
एक मेरे सिवा 
ज़मीं 
जिस पे रहना ही कार-ए-अबस था 
वही छोड़नी पड़ रही है 
तो मैं इतना घबरा रहा हूँ
कि अब मेरी यक-रंग रोज़ और शब
माह और साल की 
सारी उक्ताहटें क्या हुईं

आखिर क्यों / हरकीरत हकीर नज़्म Nazm

 आखिर क्यों चाहिए 
तुम्हें बस उतना ही आकाश 
जितना है उसकी बाहों का घेरा है …. 
जितने हैं उसके पैर …. 
जितनी है उसकी जमीन … 
जितनी है उसकी चादर … 
क्यों … ?
आखिर क्यों … ?
तुम्हारे पास भी पंख हैं 
फिर हौसला क्यों नहीं … ?

आखिरी हँसी / हरकीरत हकीर नज़्म Nazm

 कविता ने … 
उसकी ओर आखिरी बार 
हसरत से देखा 
नीम गुलाबी होंठ फडके 
आंसुओं से भीगी पलकें 
ऊपर उठाईं … 
और धीमे से बोली … 
आज मैं तेरे घर 
ज़िन्दगी की आखिरी हँसी 
हँस चली हूँ …. 
 

आग / सलाम मछलीशहरी नज़्म Nazm

 

अब क़लम में
एक रंगीं इत्र भर लो
तुम हसीं फूलों के शाइर हो कोई ज़ालिम न कह दे
शोला-ए-एहसास के काग़ज़ पे कुछ लिखने चला था
और काग़ज़ पहले ही इक राख सा था
बात वाज़ेह ही नहीं है

शाइर-ए-गुल
दाएरे सब मस्लहत-बीनी के अब मौहूम से हैं
बात खुल कर कह न पाए तुम
तो बस ज़िरो रहोगे

अब क़लम में आग भर लो
आग तुम को राख कर देने से पहले सोच लेगी
ज़िंदा रहने दा इसे
शायद ये मेरी लाज रख ले
लोग अब तक आगे के मअ’नी ग़लत समझे हुए हैं
आग आँसू आग शबनम
आग आदम के रबाब-ए-अव्वलीं की गीत

आग के नए अर्थ / हरकीरत हकीर नज़्म Nazm

 मैं फिर लूंगी जन्म 
आग के नए अर्थ लेकर 
इस तपते सूरज को बताने की खातिर 
आग का अर्थ सिर्फ 
चूल्हे पर रोटियाँ सेंकना नहीं होता 
आग का मतलब 
तल्ख़ नजरों को जलाना भी है … 

मैं फिर लूंगी जन्म … 
सीने में जलती आग से 
लिखूंगी नज़्म 
माँ के आंसुओं को हँसी में बदलने के लिए 
बीजी की पीठ पर पड़े निशानों को 
आग से लड़ना सिखाऊँगी … 

मैं फिर लूंगी जन्म … 
इस नपुंसक समाज की कुंडी खड़काने 
औरत की आहों और उसकी लिखी 
इबारतों को नया अर्थ देने 
मेरे शब्द कोष में आग के और भी अर्थ हैं 
मेरी आग राख होकर भी धधकती है 
वह सिर्फ औरत के कपड़ों में नहीं लगती 
गाँव के गाँव जला देती है 
आसमान से गिरती है गाज बनकर 
उन हाथों पर … 
जो जन्म से पहले ही 
क़त्ल के गुनाहगार होते हैं … 

मैं फिर लूंगी जन्म … 
आग की बेटी बन 
अपने पंखों की उडारी से 
करूंगी सूरज से मुकाबला 
सुनहरी अक्षरों से लिखूंगी 
आसमान पर आग के नए अर्थ 

हाँ मैं फिर लूंगी जन्म 
आग के नए अर्थ लेकर …. !!

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